गलियों और सड़कों के किनारे आक के पौधों को बहुतायत से उगता हुआ देखा जा सकता है। इसका वानस्पतिक नाम कैलोट्रोपिस प्रोसेरा है। यह कई
औषधीय गुणों से भरपूर होता है, इसके पत्ते, फूल और फल को दैवीय पूजा के लिए भी उपयोग में लाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह पौधा जहरीला होता हैं और इसकी थोड़ी सी मात्रा नशा भी पैदा करती हैं। चलिए आज जानते है आक के औषधीय गुणों और आदिवासी हर्बल ज्ञान के बारे में..
आक के संदर्भ में रोचक जानकारियों और परंपरागत हर्बल ज्ञान का जिक्र कर रहें हैं डॉ दीपक आचार्य (डायरेक्टर-अभुमका हर्बल प्रा. लि. अहमदाबाद)। डॉ. आचार्य पिछले 15 सालों से अधिक समय से भारत के सुदूर आदिवासी अंचलों जैसे पातालकोट (मध्यप्रदेश), डाँग (गुजरात) और अरावली (राजस्थान) से आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित कर उन्हें आधुनिक विज्ञान की मदद से प्रमाणित करने का कार्य कर रहें हैं।
यह बहुत कम लोग जानते हैं कि इस पौधे से निकलने वाले दूध का उपयोग शारिरिक दर्द भगाने में किया जाता हैं, पातालकोट के आदिवासियों की मानें तो इसका दूध किसी भी प्रकार के दर्द को खींच लेता हैं।
पौधे की पत्तियों और फूल को तोडे जाने के बाद निकले दूध को चोट या घाव के आसपास लगाया जाए तो वह जल्दी ठीक हो जाता हैं। हलांकि आदिवासियों के अनुसार यदि दूध ठीक घाव के ऊपर लग जाए तो पीडि़त को चक्कर आना या तेज जलन जैसी शिकायतें हो सकती हैं, इसलिए इसे घाव के आसपास की त्वचा पर ही लगाना चाहिए।
इस पेड़ की जड़ और छाल को हाथीपांव, कुष्ठरोग और एक्जीमा जैसे रोगों को ठीक करने में उपयोग में लाया जाता हैं।
घाव के पक जाने पर आदिवासी इसकी पत्तियों की सतह पर सरसों तेल लगाकर घाव पर लगाते हैं, इनका मानना है कि घाव फूटकर मवाद बाहर निकल आता है और शीघ्र सूखने लगता है।
आदिवासी इसकी जड़ का चूर्ण बनाकर उन मरीज को देते हैं जिन्हें दमा, फेफड़े की बीमारियों और कमजोरी की समस्याएं होती हैं।
इसके फूल अस्थमा, बुखार, सर्दी और टयूमर के इलाज में उपयोग में लाए जाते हैं लेकिन इनका इस्तमाल किसी जानकार के दिशा निर्देशों में ही किया जाना चाहिए।
डाँगी आदिवासियों की मानी जाए तो इस पौधे को कृषि भूमि के पास लगाया जाए तों यह भूजल बढ़ाता है और इससे भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती हैं।
औषधीय गुणों से भरपूर होता है, इसके पत्ते, फूल और फल को दैवीय पूजा के लिए भी उपयोग में लाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह पौधा जहरीला होता हैं और इसकी थोड़ी सी मात्रा नशा भी पैदा करती हैं। चलिए आज जानते है आक के औषधीय गुणों और आदिवासी हर्बल ज्ञान के बारे में..
आक के संदर्भ में रोचक जानकारियों और परंपरागत हर्बल ज्ञान का जिक्र कर रहें हैं डॉ दीपक आचार्य (डायरेक्टर-अभुमका हर्बल प्रा. लि. अहमदाबाद)। डॉ. आचार्य पिछले 15 सालों से अधिक समय से भारत के सुदूर आदिवासी अंचलों जैसे पातालकोट (मध्यप्रदेश), डाँग (गुजरात) और अरावली (राजस्थान) से आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान को एकत्रित कर उन्हें आधुनिक विज्ञान की मदद से प्रमाणित करने का कार्य कर रहें हैं।
यह बहुत कम लोग जानते हैं कि इस पौधे से निकलने वाले दूध का उपयोग शारिरिक दर्द भगाने में किया जाता हैं, पातालकोट के आदिवासियों की मानें तो इसका दूध किसी भी प्रकार के दर्द को खींच लेता हैं।
पौधे की पत्तियों और फूल को तोडे जाने के बाद निकले दूध को चोट या घाव के आसपास लगाया जाए तो वह जल्दी ठीक हो जाता हैं। हलांकि आदिवासियों के अनुसार यदि दूध ठीक घाव के ऊपर लग जाए तो पीडि़त को चक्कर आना या तेज जलन जैसी शिकायतें हो सकती हैं, इसलिए इसे घाव के आसपास की त्वचा पर ही लगाना चाहिए।
इस पेड़ की जड़ और छाल को हाथीपांव, कुष्ठरोग और एक्जीमा जैसे रोगों को ठीक करने में उपयोग में लाया जाता हैं।
घाव के पक जाने पर आदिवासी इसकी पत्तियों की सतह पर सरसों तेल लगाकर घाव पर लगाते हैं, इनका मानना है कि घाव फूटकर मवाद बाहर निकल आता है और शीघ्र सूखने लगता है।
आदिवासी इसकी जड़ का चूर्ण बनाकर उन मरीज को देते हैं जिन्हें दमा, फेफड़े की बीमारियों और कमजोरी की समस्याएं होती हैं।
इसके फूल अस्थमा, बुखार, सर्दी और टयूमर के इलाज में उपयोग में लाए जाते हैं लेकिन इनका इस्तमाल किसी जानकार के दिशा निर्देशों में ही किया जाना चाहिए।
डाँगी आदिवासियों की मानी जाए तो इस पौधे को कृषि भूमि के पास लगाया जाए तों यह भूजल बढ़ाता है और इससे भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती हैं।
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