सदा पीने के काम में लाते हैं। इस जल की कठोरता उसको उबालने से दूर नहीं होती और उसको दूर करने के लिए इसमें खनिज पदार्थों को मिलाने की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे जल को स्थाई कठोर जल कहते हैं।
स्त्रोंतों, गहरे कुऑं, नदी एवं नहर का पानी कठोर होता है। चूना आदि खनिज जो जल में घुल जाते हैं। वे जल को कठोर बना देते हैं। ऐसा कठोर जल स्वास्थ्यवर्ध्दक होता है।
स्त्रोंतों, गहरे कुऑं, नदी एवं नहर का पानी कठोर होता है। चूना आदि खनिज जो जल में घुल जाते हैं। वे जल को कठोर बना देते हैं। ऐसा कठोर जल स्वास्थ्यवर्ध्दक होता है।
अस्थाई कठोर जल- ऐसे जल को उबालने से उसकी कठोरता दूर होकर वह मृदु हो जाता है। वर्षा का संग्रहित जल अस्थायी कठोर होता है, जो स्वास्थ्य के लिए कम हितकर है। वैसे भी पीने का जल स्वस्थ ही रहना चाहिए नहीं तो जल से अनेक प्रकार की बीमारीयां उत्पन्न होती है। अशुध्द जल पीने से पेट में अनेक विकार उत्पन्न होते हैं। अशुध्द जल पीने से टायफॉइड, वाइरल बुखार, दस्त लगना, पेट में दर्द, उल्टी होना, डिहाइड्रेशन होना। अशुध्द जल से अनेक प्रकार के कीटाणु हमारे पेट में जा सकते हैं, अत: पीने से जल स्वस्छ न हो तो उसे उबालकर ठण्डा करके पीना चाहिए। साधारणतया किसी भी रोग के उत्पन्न होने पर डॉक्टर, चिकित्सक और वैद्य सभी जल को उबालकर पीने की सलाह देते है। प्रतिदिन व्यक्ति को 8-10 ग्लास पानी पीना ही चाहिए। जल के प्रयोग से रोग दूर होने का कारण जल में अपनी कुछ विशेषताओं का होना है। उसमें आरोग्यकारक गुणों की विद्यमानता है, जो चिकित्सा के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते है। जल की वे विशेषताएं अथवा गुण निम्नलिखित है-
1. जल किसी वस्तु के संपर्क में आने पर अपनी गर्मी या ठंडक उसे बड़ी शीघ्रता से दे सकता है और उसकी गर्मी या ठंडक ले सकता हैं।
2. जल किसी भी अन्य वस्तु की अपेक्षा अधिक गर्मी या ठंडक को रोके रह सकता है।
3. जल तरल होने के कारण चिकित्सा विधियों में आसानी से काम आ सकता है।
4. जल अन्य चीजों को घुलाकर बहा सकता है, जिसकी वजह से वह स्नान, एनिमा, सफाई में प्रयुक्त होता है।
स्वस्थ जीवन के लिए प्रतिदिन भोजन और व्यायाम जितनें जरुरी हैं, उसी तरह दैनिक स्नान भी जरुरी हैं। अपने देश में इसी कारण स्नान प्रत्येक व्यक्ति के लिए नित्य कि एक आवश्यक क्रिया है और लोग सदा इसको सदाचार का एक अंग मानते आ रहे हैं। गर्मी के दिनों में स्नान के जल का तापमान शरीर से थोड़ा कम होता है। स्नान त्वचा को मैल एवं दुर्गन्धरहित बनाए रखती है। स्नान करते समय पहले सिर को धोना चाहिए, तत्पश्चात क्रमश: अन्य अंगों की सफाई करना चाहिए। ऐसा करने से शरीर की आवश्यक उष्णता सिर से होती हुई पैरों की तरफ से निकल जाती है और शरीर तरोताजा हो जाता है। इस प्रकार स्नान करने से मस्तिष्क ठंडा एवं शक्तिशाली बनता है। नेत्र ज्योती बढ़ती है। फेफड़े सशक्त होते हैं तथा पाचन क्रिया ठीक होती है। 'शीतेन शरीश: स्नानं चक्षुष्यमिति निर्दिशेंता' अर्थात् ठंडा जल सिर पर डालने से नेत्रों की शक्ति बढ़ती है। गर्मियों में तो अवश्य ही दोनों वक्त स्नान करना चाहिए। इस स्नान के लिए सुबह सूर्योदय के समय और शाम सूर्योस्त के बाद का समय ठीक रहता है। स्नान करने से भूख, बल, आयु और जीवन शक्ति बढ़ती है। स्नान करने से और साथ ही रक्त को विशुध्द करने और सम्पूर्ण इन्द्रियों को स्वच्छ और निर्मल करता है।
जल का दूसरा महत्वपूर्ण उपयोग है प्यास बुझाना, शरीर में पानी की आवश्यकता पड़ने पर प्यास लगती है। गर्मि के दिनों में लू लग जाती है तो लू से बचने के लिए घर के बाहर निकलते समय 1 गिलास पानी पीकर निकले और गर्मि के दिनों में धूप से घर या छाँव में आने की थोडी देर ही बाद पानी पीना चाहिए क्योंकि धूप की वजह से हमारे शरीर की ऊष्णता बढ़ी हुई होती है ऐसे में हम ठण्डा पानी पी लेते है तो शीत गर्म होने का भय रहता है। थोड़ी देर बैठने के बाद पसीना सूख जाए तब पानी पीना चाहिए। उषा पान- इसके लिए उबला हुआ या फिल्टर किया हुआ जल लेना चाहिए। सूर्योस्त के बाद साफ किए हुए तांबे के पात्र में 1 लीटर पानी भर कर रख दें। तांबे के कुछ बर्तन में रखा हुआ जल 12 घण्टे में विशुध्द होता है। तांबे के पात्र को ढंक कर लकड़ी के पाटे पर रखना चाहिए। प्रात उठते ही कागासन में बैठ कर चार गिलास पानी शरीर ताप के अनुसार पिएं। थोड़े दिनों बाद पानी की मात्रा डेढ़ लीटर तक करनी चाहिए। उसके एक घंटे बाद तक कुछ भी खाना पीना नहीं चाहिए।
लाभ- वैद्यक ग्रंथों में उषा: पान को अमृत पान भी कहा गया है। इससे पेट साफ होता है, पित्तजनित रोग समाप्त होते है और रक्त शुध्द होकर हृदय, मस्तिष्क एवं स्नायु मण्डल को बल प्राप्त होता है। जल चिकित्सा एक जादू सा प्रभाव डालने वाली चिकित्सा है। जल चिकित्सा से रक्त पित्त के विकार, सिरदर्द, किड़नी और पेशाब के विकार, मोटापा, कब्ज, माईग्रेन, गैस, उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि में लाभ होता है। ऐसे बहुत से विकारों में फायदे की बात यह है कि इसका कोई साइडफेक्ट नहीं होता। जो पानी सुबह हम पीते है वह 1 घंटे के अंदर 3-4 बार पेशाब में निकल जाता है। त्वचा की चमक बढ़ाता है जल। वृध्द और बीमार व्यक्ति को किसी अच्छे चिकित्सक से सलाह करके जल चिकित्सा करनी चाहिए। प्रकृति का नियम है की भोजन करने और पानी पीने का समय अलग-अलग होना चाहिए। पशु-पक्षी तक इस नियम की अवहेलना नहीं करते। यह तभी संभव है जब हमारा भोजन सात्विक, सादा और सुपाच्य हो। हमारे भोजन में नमक, मसाला, मिर्च, तेल-खटाई ऐसी प्यास उत्पन्न करने वाली वस्तुओं की अधिकता न हो। 'भुक्तस्यादो जलं पितिं कार्श्य मंद्राद्रि दोष कृत' अर्थात् भोजन करने के लिए बैठने के पहले जल पीने से कमजोरी, मंदाग्रि उत्पन्न होती है। भोजन के पहले और अंत में पानी पीना हानिकर है।
पैरों की जलन-गर्मी की वजह से शरीर में पित्त बढ़ जाता है। पैरों में बहुत जलन पड़ने लगती है। ऐसे में एक बड़े से टब की आवश्यकता होती है। तकियादार टब लेकर उसमें इतना पानी डालिए कि उसमें बैठने पर वह जांघो और नाभि तक पहुँच जाए। पानी का तापमान 55 से 84 डिग्रि तक होना चाहिए। पैरों को टब के बाहर आगे रखी हुई किसी छोटी किपाई, चौकी अथवा पाटे पर आराम से रख लें। एक गिलास पानी पीकर और सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखकर उस टब में बैठ जाए। पेट और कमर टब के पानी में डूबना चाहिए। 5 से 10 मिनट कटि स्नान करना चाहिए, फिर हर दो तीन दिनों बाद 1-1 या 2-2 मिनट बढ़ना चाहिए। इस तरह दस दिनों में 20 मिनट तक का कटि स्नान लेना चाहिए। लाभ- कटि स्नान, पेट को साफ करने के साथ यकृत, तिल्ली एवं आतडि़यों से रस स्त्राव बढ़ाता है, जिससे रोगी की पाचन शक्ति में वृध्दि होती है। पेशाब में जलन, अजीर्ण, पेट की गर्मी, मन्दाग्रि, उदर संबंधी रोगों में फायदा पहुंचता है। ज्वर, सिरदर्द, मूत्र अवरुध्दा, कब्ज, गैस, बवासीर आदि में कटि स्नान शीघ्र लाभ पहुँचाता है।
कटि स्नान से बहुत से रोगों मे लाभ पहुंचता है क्योंकी प्राय: सभी रोग पेडू की गर्मी से ही उत्पन्न होते हैं और कटि स्नान, पेडू की बढ़ी हुई गर्मी को कम करता है। आयुर्वेद के सिध्दांत 'सर्वेषा रोगाणां निदांन कुपितामला और वायुनां यत्र नीयन्ते तत्र गच्छनि मेघवत' से भी इसका बहुत कुछ संबंध है। कटि स्नान करते समय पेडू को रगड़ा जाता है जिससे आंतों में भरा और चिपका मल खिसक करके बाहर आ जाता है। इससे कब्ज से छुटकारा मिलता है। जल और उसके प्रयोग यद्यपि देखने में बहुत मामूली और साधारण प्रतीत होता है, पर वे रोगों को दूर करने के लिए बड़े ही शक्तिपूर्ण एवं अचूक साधन है। शर्त सिर्फ इतनी है कि इसका प्रयोग विधिवत् और सावधानी के साथ होना चाहिए। साथ ही प्रयोग निर्धारण के समय रोगी को बलाबल स्थिति एवं अवस्था का भी ध्यान अवश्य रखना चाहिए। अन्यथा लाभ के बदले हानि हो सकती है। जैसे जो प्रयोग एक सशक्त व्यक्ति को किसी रोग को दूर करने में सहायक हो सकता है, वही प्रयोग उस रोग से पीडि़त वृध्द और रोगी व्यक्ति को नुकसान पहुँचा सकता है। जल ही जीवन है, इसे बचाए, बहाए नहीं।
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